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तस्मि॒न्ना वे॑शया॒ गिरो॒ य एक॑श्चर्षणी॒नाम्। अनु॑ स्व॒धा यमु॒प्यते॒ यवं॒ न चर्कृ॑ष॒द्वृषा॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tasminn ā veśayā giro ya ekaś carṣaṇīnām | anu svadhā yam upyate yavaṁ na carkṛṣad vṛṣā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तस्मि॑न्। आ। वे॒श॒य॒। गिरः॑। यः। एकः॑। च॒र्ष॒णी॒नाम्। अनु॑। स्व॒धा। यम्। उ॒प्यते॑। यव॑म्। न। चर्कृ॑षत्। वृषा॑ ॥ १.१७६.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:176» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:23» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रकृत विषय में विद्यारूप वीज के विषय को कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! (तस्मिन्) उसमें (गिरः) उपदेशरूप वाणियों को (आ, वेशय) अच्छे प्रकार प्रविष्ट कराइये कि (यः) जो (चर्षणीनाम्) मनुष्यों में (एकः) एक अकेला सहायरहित दीनजन है और (यम्) जिसका (अनु) पीछा लखिकर (चर्कृषत्) निरन्तर भूमि को जोतता हुआ (वृषा) कृषिकर्म में कुशल जन जैसे (यवम्) यव अन्न को (न) बोओ वैसे (स्वधा) अन्न (उप्यते) बोया जाता अर्थात् भोजन दिया जाता है ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कृषिवल खेती करनेवाले उत खेतों में बीजों को बोकर अन्नों वा धनों को पाते हैं, वैसे विद्वान् जन ज्ञान विद्या चाहनेवाले शिष्य जनों के आत्मा में विद्या और उत्तम शिक्षा प्रवेश करा सुखों को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रकृतविषये विद्याबीजविषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वंस्तस्मिन् गिर आ वेशय यश्चर्षणीनामेक एवाऽस्ति। यमनुलक्ष्य चर्कृषद्वृषा यवं न स्वधान्नमुप्यते च ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तस्मिन्) (आ) (वेशय) समन्तात् प्रापय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गिरः) उपदेशरूपा वाणीः (यः) (एकः) असहायः (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (अनु) (स्वधा) अन्नम् (यम्) (उप्यते) (यवम्) (न) इव (चर्कृषत्) भृशं कर्षन् भृशं भूमिं विलिखन् (वृषा) कृषिकर्मकुशलाः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा कृषिवलाः क्षेत्रेषु बीजान्युप्त्वा धनानि लभन्ते तथा विद्वांसो जिज्ञासूनामात्मसु विद्यासुशिक्षे प्रवेश्य सुखानि लभन्ते ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा शेतकरी जमिनीत बीज पेरून अन्न व धन प्राप्त करतो तसे विद्वान लोक ज्ञान-विद्या घेऊ इच्छिणाऱ्या शिष्यांच्या आत्म्यांमध्ये विद्या व उत्तम शिक्षण देऊन त्यांना सुख संपादन करवितात. ॥ २ ॥